संजीब बरुआ का आलेख :

मणिपुर में हालात नाजुक बने हुए हैं। वहां के सभी कुकी विधायकों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मांग की है कि मणिपुर के पहाड़ी जिलों के लिए एक अलग डीजीपी और एक अलग चीफ सेक्रेटरी की नियुक्ति की जाए। इससे एक बार फिर इस बात को हवा मिल रही है कि राज्य में अशांति के पीछे मैतेई और मूल निवासी कुकी लोगों का विवाद है।

साल 2020 में गृह मंत्री अमित शाह ने इंफाल में एक भाषण दिया था। उसमें उन्होंने इनर लाइन परमिट (ILP) की व्यवस्था को मणिपुर में भी लागू करने के फैसले की बात की थी। कहा था कि यह मणिपुर के लोगों के लिए बीजेपी का ‘सबसे अच्छा उपहार’ है। इसका श्रेय पीएम मोदी को देते हुए शाह ने कहा था, ‘मोदीजी ने महसूस किया कि मणिपुर में इनर लाइन परमिट नहीं है, लेकिन इसके आसपास के राज्यों में यह व्यवस्था है। उन्होंने इसे यहां के मूल निवासी लोगों के प्रति अन्याय माना। फिर उन्होंने इसका रास्ता निकाला।’

भारत ‘मूल निवासी लोगों’ के लिए कोई अलग पहचान निर्धारित नहीं करता। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय अधिकारी कहते हैं कि यह कॉन्सेप्ट उन जगहों से आया है, जहां गोरे लोग बाहर से आकर बसे थे और यह कॉन्सेप्ट भारत पर लागू नहीं होता। इसके साथ ही, शेड्यूल्ड ट्राइब (ST) की ऑफिशियल कैटेगरी को मोटे तौर पर इंडिजेनस की इंटरनैशनल कैटेगरी के बराबर मान लेने का चलन बन गया है। कुकी लोगों को एसटी स्टेटस मिला हुआ है। लिहाजा बाहर के लोग कुकी लोगों को तो मूलनिवासी के रूप में देखते हैं, लेकिन मैतेई लोगों को नहीं।

इनर लाइन परमिट का दायरा मणिपुर तक बढ़ाने से पहले यह उत्तर पूर्व के तीन राज्यों अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में लागू था। इन तीनों में से हर राज्य में एसटी बहुसंख्यक हैं। शाह ने जिस नए कदम का श्रेय मोदी को दिया था, उसमें इनर लाइन परमिट को ऐसे राज्य में लागू कर दिया गया, जहां एसटी बहुसंख्यक नहीं हैं। यह परमिट खुद को मूलनिवासी कहने वाले एक ग्रुप की मांग के आधार पर उठा लिया गया, जिसे एसटी का दर्जा नहीं मिला था।

यह बात भी देखी गई है कि उत्तर पूर्व में संघ परिवार के कामकाज का जो फोकस रहा है, उसमें मूलनिवासियों की आस्था और उनकी परंपरा की बात शामिल रही है। हिंदुत्व के जो पैरोकार हैं, वे लोग कथित विदेशी धर्मों और पुण्यभूमि भारत से जुड़े धर्मों और परंपराओं के बीच अंतर बताते रहते हैं। 20वीं सदी के आखिर से मणिपुर के मैतेई लोगों के बीच एक ऐसा मूवमेंट देखा गया है, जिसमें धार्मिक और सांस्कृतिक चीजों पर जोर बढ़ा है। ऐसी भावनाओं के चलते ही मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग को हवा मिली। चूंकि इस मूवमेंट में मूलनिवासी या स्वदेशी परंपराओं को बहाल करने पर जोर है, लिहाजा मैतेई समुदाय को ‘मूलनिवासी’ या एसटी कहा जाने लगा।

जहां तक एसटी दर्जे पर जोर की बात है तो इसे इस तरह देखना होगा कि हाल के वर्षों में रिजर्वेशन में हिस्सेदारी के दावे बढ़े हैं। आरक्षण से जुड़े विवादों में जाति पर लंबे समय से फोकस रहा है, लेकिन एसटी स्टेटस भी अब विवाद का बड़ा मुद्दा बन गया है। भारत में आधिकारिक तौर पर लगभग 720 समुदायों को एसटी दर्जा मिला है। कम से कम एक हजार दूसरे ग्रुप भी यह दर्जा मांग रहे हैं।